Sunday, July 11, 2010

निश्छल प्रेम की एक अन्तहीन यात्रा - मेरी जिन्‍दगी में चेखव - राजू कुलकर्णी

निश्छल प्रेम की एक अन्तहीन यात्रा पर निकलने के उपरांत ऐसा प्रतीत हो रहा है, मानों लीडिया एवं चेखव के जीवन के उन स्वर्णिम पलों को मैं पुन: जी गया । “प्रेम ’’ – यह शब्द ही मन को झंकृत कर देने के लिए काफ़ी है। किंतु , शब्दहीन,संयमित,एवं आग्रहहीन प्रेम जिसमें इतना वेग है,वो उपर से इतना शांत कैसे हो सकता है? इस ज्ञान का मौन प्रहार मानो मैं पूरी पुस्तक के पठन के दौरान झेलता रहा । प्रथम मिलन का दृश्य जितना सहज है उतना ही अन्तर्मन के सूत्रों को उलझाने वाला भी । चेखव का लीडिया की आँखों के भीतर से उसके अन्तस में झाँक लेना और उससे एक अन्तहीन तादात्म्य स्थापित कर लेना शायद यह सिर्फ़ चेखव के लिए ही संभव था । उनका यह कथन

“ ऐसी चोटियाँ तो मैंने पहले कभी नहीं देखी । ’’

जितना सरल है उतना ही बालसुलभ भी। किंतु चोटियों को पकड़कर ऐसा बोलने की यह बालसुलभ निश्छल चेष्टा लीडिया के मन के किन कोमल तारों को स्पर्श कर लेती है , शायद चेखव भी इससे अनभिज्ञ थे। चेखव लीडिया से अभिभूत हैं और लीडिया तो उनसे मिलने से पहले से ही। परंतु इस बहाव में ही कहीं उसका स्व बह ना जाए इसलिए वह मजबूत किलेबंदी करती हुई बोल उठती है

“ मैं श्रीमती खुदेकोव की बहन हूँ और भला सोचिए –विवाहित भी हूँ और एक बच्चे की माँ भी और इसलिए अब मुझे घर जाना चाहिए । क्योंकि मेरा नन्हा दूध पीता बच्चा भी है ।’’

चेखव इस किलेबंदी को बखूबी समझते हैं। और कभी इसे तोड़ने की इच्छा भी नहीं करते। आगे भी अपने संयमित व्यवहार से वे लीडिया के इस नैतिक बोध का संरक्षण करते हैं ।कहीं कोई स्वार्थ नहीं, ना ही कुछ पाने का लोभ । हाँ , पूरा लबालब भरा हुआ प्याला, जैसे कभी-कभी हमारे ना चाहने पर भी छलक उठता है, उनका प्रेम भी कभी-कभी ना चाहते हुए भी शब्दों में अपनी गति को पिरो देता है “ हाँ पहले ……याद है हमारी मुलाकातें ? क्या तुम जानती हो मैं तुम्हे कितनी गहराई ,कितनी शिद्दत से प्यार करता था ? हाँ ! मुझे तुमसे प्यार था। तुम्हारे ताजगी भरे तरुण, सुन्दर ,मधुर व्यक्तित्व और चकाचौंध कर देनेवाले लावण्य ने मुझे पूरी तरह बाँध लिया था। मुझे लगता ,इतना प्यार तो मैं दुनिया की किसी भी अन्य स्त्री से नहीं कर सकता । ’’

“ पर मैं जानता था तुम दूसरी स्त्रियों से भिन्न हो। तुम्हे केवल पवित्र और निष्कलुष प्यार ही किया जा सकता है । पवित्र,निष्कलुष और ……निःशेष प्यार। तुम्हें स्पर्श करते मैं डरता था, कहीं रूठ ना जाओ । ’’

लीडिया का नैतिक बोध उसे भावनाओं के अतिरेक से सुरक्षा प्रदान करता है। किंतु, यह नैतिक बोध क्या अन्तर्मन की उन सुकोमल भावनाओं के मर्म पर आघात नहीं ? यह प्रश्न सिर्फ़ रुस के समाज की मनोवृति को इंगित नहीं करता अपितु , देशों कि सीमाओं को लाँघकर एक सार्वभौमिक प्रश्न बनकर उठ खड़ा होता है। क्या इस युग में भी लीडिया स्वयं को उस नैतिक बोध से स्वतन्त्र नहीं कर पायेगी ? परिवार,पति,बच्चे और समाज ……पर इन सबके बीच कहीं उस सत्य प्रेम के लिये तरसता मन । यह भावना सदैव से पीडित हुई है और शायद आगे भी दमन ही इसका भाग्य है। किन्तु जब कभी यह भावना उन सीमाओं का अतिक्रमण कर लेती है, हम उसका सरल नामकरण कर देते हैं—“विवाहेतर सम्बन्ध” । परन्तु क्या वास्तव में यह इतना सरल है ? पर , यहाँ किस्सा कुछ अलग है। लीडिया अपने नैतिक बोध को स्वीकार करती है एवं चेखव उस बोध को आजीवन संरक्षण देते हैं

“ तुम्हारे भीतर एक सहज नैतिक बोध है । बहुत बड़ी बात है यह। ’’

और यही संरक्षण उनके प्रेम को उच्चतर से उच्चतम कि श्रेणी में ला खड़ा करता है। लीडिया का पेण्डेन्ट बनवाना और उसपर अपने प्यार का संकेत देना

“ पृष्ठ 267 पंक्ति 6 और 7 ’’

“ अगर कभी मेरे प्राणों की जरूरत हो तो आना और निःसंकोच ले लेना । ’’

उस आग्रह के संयम की पराकाष्ठा है। और चेखव का उसी रूप में प्रत्युत्तर देना “पृष्ठ 121 की पंक्ति 11 और 12 ’’

“युवतियों के लिए नकाब पहनकर नाच में भाग लेना ठीक नहीं। ’’

saaसामान्य होते हुए भी लीडिया के सभी प्रश्नों के उत्तर देने में सक्षम है। चेखव के मुहर के शब्द

“ अकेले के लिये संसार एक मरुस्थल है।’’

उनके मन की पीड़ा की बस एक ऊपरी झलक देता है, मानो समुद्र का ग्लेशियर जो भीतर से कहीं ज्यादा विशाल होता है। परन्तु यह पीड़ा कभी भी प्रेम में अपना कोई आग्रह नहीं रखती। मृत्यु के निकट पहुँचकर भी चेखव वापस लौट आते हैं। शायद इसके पीछे उन तीन मिनटों की मुलाकात हो, जिसने उनमें पुनः चेतना का संचार कर दिया। लीडिया के दिए फूलों में शायद कोइ जादू है, जो उन्हें मृत्यु के पाश से भी खींच लाया । उनके पत्र की पंक्ति

“ तुम्हारे फूल मुरझाने की जगह और निखरते जा रहे हैं। मेरे डाँक्टर साथियों ने उन्हें मेज पर रखने की इजाजत दे दी है। ’’
चेखव जहाँ प्रेम के उच्चतम भाव से विभोर हैं
“ जब हम प्यार करते हैं तो अन्तःकरण में सामान्य सुख-दुःख , पाप-पुण्य से परे किसी उच्चतर , महत्तर भाव को पाने की आकांक्षा रहती है । काश व्यक्ति हर प्रकार की आकांक्षा से ऊपर उठ पाता। ’’
और लीडिया अपने नैतिक बोध के पाश में छटपटाते हुए भी उस प्रेम को जीवित रखती है
“ जीवन ने मुझे ऐसे पाश में जकड़ लिया था जिससे मुक्ति असम्भव थी । चेखव के साथ सुखी हो पाने में यदि मेरा परिवार बाधक था तो परिवार के साथ हँसी – खुशी जीवन बिताना भी तो चेखव के कारण संभव नहीं था ।मैं दो टुकड़ों में बँटी हुई थी। ’’
यह प्रेम अपनी चाल से चलता रहता है और हर नूतन सोपान के साथ चेखव शायद यही निष्कर्ष निकाल पाते हैं
“सदा खुश रहो और जीवन को बहुत गंभीरता से न लो। शायद वह कहीं अधिक सहज है…………और फिर जिस जीवन से हम परिचित नहीं, क्या वह इस योग्य है कि उसके लिए इतनी मानसिक यन्त्रणा भोगी जाए। मेरी राय में तो नहीं।’’

मेरे जिन्दगी में चेखव (लीडिया एविलोव)(हिन्दी अनुवाद:रंजना श्रीवास्तव)

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