चालीस करोड का गुब्बारा
क्या खूब पेट पर दे मारा
मत लटक कृषक इन पेडों पर
करना ही हो जो आत्त्महनन
तो दौड लटक गुब्बारों में
महाबचत है खेलबजट
है माल बहुत कलमाडी में
है खून-पसीना बंद तेरा
स्विस बैंक की अलमारी में
वो ढाँप रहे गंदी सडकें
बैनर की रंगीं कतारों में
इनके पीछे की गलियों में
सोये है नंगे कतारों में
चलने दे सबकुछ मौन ठिठक
या फ़टे पाँव तू नाच थिरक
यह लोकतंत्र है सीख जरा
यहां रह्ते साँप गलियारों में
ReplyDeleteनये हो दोस्त, यह न कहो..
कुछ सिरफिरे इसमें घोर पॉज़िटिविटी देख रहे हैं ।
वह स्वस्थ आलोचना के ज़मीनी पहलू नहीं, बस चिकनी टाँगों को देखते हैं ..
वह मगन हैं, क्योंकि गुब्बारों पर टकटकी लगाने को वह बीस मिनट में ऑफ़िस जो पहुँच जाते हैं,