वो पार्क का छोटा-सा कोना ,उसमें न कोई अपना होना
पर वृद्ध समय ने विस्थापन का चुना है यह अन्तिम आश्रय
ताश ही इनकी मैत्री है ,ताश ही है अन्तिम परिचय
वो धनलोलुप की दृष्टि नहीं, ना वैभव की ही प्यास है
सिर्फ़ हरी घास की चादर है ,विटपों की शीतल छाँह है
निर्विकार खेलता बचपन है और हाथों में पँखुड़ियाँ है
है योगी का आनंद यही, उसमें ही मोक्ष मुसकाता है
माँ की उँगली का आलंबन, ये ही जग है ये ही जीवन
यह महानगर के कक्षों में घुटती गृहिणी की मुक्ति है
सब कष्टों का है अन्त यहीं यह खुली हवा ही शक्ति है
अपूर्व मैत्री और हास्य सुलभ नयनों में शान्ति भूला तन-मन
हे नमन ! पार्क तुमको शत शत वसुधैव कुटुंबकम को वंदन !